अंबेडकर
सवाल ये भी उठता है कि आखिर अंबेडकर जिन्ना का समर्थन क्यों करते थे? जवाब सीधा है। मेरा मानना है कि अंबेडकर जिन्ना का समर्थन इसलिए करते थे क्योंकि जिन्ना हिंदू धर्म को खत्म करने का अभियान चला रहे थे, और अंबेडकर ने हर मौके पर जिन्ना का साथ दिया, जबकि जिन्ना ने भी हर मौके पर अंबेडकर का साथ दिया। दोनों मिलकर हिंदू धर्म और भारत को कमजोर कर रहे थे, और इसीलिए वे दोनों अंग्रेजों के "लाडले" थे।
1946 में जब कैबिनेट मिशन के बाद भारत के संविधान निर्माण की बात आई, तो एक विरोधाभासी स्थिति देखने को मिली। डॉ. बी.आर. अंबेडकर, जो आज संविधान निर्माता के रूप में जाने जाते हैं, उस समय जिन्ना के साथ खड़े होकर संविधान निर्माण का विरोध कर रहे थे। जिन्ना ने कांग्रेस पर "हिंदू राज" थोपने का आरोप लगाया और संविधान निर्माण का पुरजोर विरोध किया। अंबेडकर ने तब उनका खुलकर साथ दिया और स्पष्ट शब्दों में कहा, "कांग्रेस मूलतः एक हिंदू संगठन है… मुसलमानों को हिंदू बहुसंख्यकवाद से डरने का पूरा कारण है।" ऐसे में, जो व्यक्ति जिन्ना के साथ खड़े होकर भारत के संविधान निर्माण का विरोध कर रहा हो, जिसने खुद यह कहा हो कि वह संविधान सभा में एक "बंधुआ मजदूर" की तरह था, और जिसने यहाँ तक कहा हो कि "जो मैंने किया या बोला वो सब मेरी इच्छा के विरुद्ध था और यदि कभी ये संविधान को समाप्त किया गया तो मुझे कोई दुःख नहीं होगा, और जब भी अवसर मिलेगा इस संविधान को जलाने का मैं पहला व्यक्ति होऊंगा," ऐसे व्यक्ति को संविधान निर्माता कैसे बताया जा सकता है?
इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि अंबेडकर ने संविधान के निर्माण में जो भी थोड़ी बहुत राजनीतिक भूमिका अदा की थी वो पूरी तरह से पूर्वाग्रह और से ग्रसित थी। उनके भीतर कहीं से भी भारत के उत्थान की भावना नहीं थई। न तो वो देश के लोगों को समझते थे न ही यहां के धर्मों को। वो मात्र देश को तोड़ने की रणनीति पर काम कर रहे थे। अंबेडकर के इन विचारों के सामने आने के बाद यह प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है उन्हें कब तक संविधान निर्माता माना जाता रहेगा? भारत 2025 में अपने संविधान के 75 वर्ष पूरे होने का महत्वपूर्ण मील का पत्थर पार करने जा रहा है। अब समय आ गया है कि इस भूल को सुधारा जाए। जो राजनीतिक नेतृत्व इतने सालों तक अपनी गलती नहीं सुधार पाया उसे मौजूदा देश के लोग करें। इस ऐतिहासिक मोड़ पर, यह अत्यंत आवश्यक है कि बेनेगल नरसिंह राउ को वह उचित सम्मान और पहचान मिले जो उनका वास्तविक हक है। उनकी सादगी, प्रसिद्धि से दूर रहने की प्रवृत्ति और निस्वार्थ सेवा ने उन्हें लंबे समय तक सार्वजनिक विमर्श से दूर रखा और वे गुमनाम रह गए। परंतु अब समय आ गया है कि भारत अपने इस सच्चे नायक को याद करे, जिसके बौद्धिक श्रम ने इस विशाल लोकतंत्र की नींव रखी।
मेरा यह भी मानना है कि यदि सर बेनेगल नरसिंह राउ संविधान सभा का नेतृत्व करते, तो संविधान बनाने की प्रक्रिया और उसके नतीजों पर बड़ा असर पड़ता। वे राजनीतिक दबावों से दूर रहकर एक मजबूत और निष्पक्ष ढांचा तैयार कर पाते। उनकी प्राथमिकता कानूनी तर्क और संविधान की असल ज़रूरतों को पूरा करना होता, न कि तुरंत के राजनीतिक फायदे। राउ के नेतृत्व में, संविधान सभा में बहसें शायद ज़्यादा केंद्रित और तकनीकी होतीं और उनका परिणाम बेहतर होता। क्योंकि उन्होंने ही संविधान का शुरुआती मसौदा तैयार किया था, वे हर बात के पीछे का कारण और उसकी वैश्विक अहमियत सीधे समझा सकते थे। उनकी ईमानदारी पर कोई शक नहीं होता। इससे संविधान के हर हिस्से की व्याख्या और भी साफ और सबको मान्य होती। लोगों के शक और मुश्किल सवालों को वे अपनी गहरी समझ और अनुभव से आसानी से दूर कर पाते, जिससे संविधान को समाज के हर वर्ग में ज़्यादा अपनाया जाता और उसकी समझ बढ़ती। अगर वे नेतृत्व में होते, तो शायद संविधान पर तुरंत के राजनीतिक समझौतों और बांटने वाले प्रतीकों का कम असर पड़ता। उनका लक्ष्य एक ऐसा संविधान बनाना था जो राजनीति से ऊपर हो और देश को एक कुशल, संस्थागत तरीके से चलाए। राउ के नेतृत्व में संविधान का निर्माण राजनीतिक प्रतीकों के बजाय कानूनी योग्यता और प्रशासनिक क्षमता पर ज़्यादा केंद्रित होता। इससे संविधान के परिणाम और भी बेहतर हो सकते थे।
From Swami Anand Swaroop ji Maharaj ke wallpage .
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